
मंदसौर में 2018 में हुई वीभत्स गैंगरेप घटना के आरोपी इरफान और आसिफ की फांसी की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने 16 जनवरी, 2025 को निरस्त कर दिया है। इस फैसले ने इस मामले में एक नया मोड़ लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए मामले को ट्रायल कोर्ट में पुनः भेज दिया है और यह माना है कि डीएनए रिपोर्ट अकेले पर्याप्त साक्ष्य नहीं मानी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले का महत्व
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक लैंडमार्क आदेश माना जा रहा है। कोर्ट ने डीएनए रिपोर्ट को निर्णायक मानने से इंकार करते हुए यह कहा कि यह केवल एक संकेतक हो सकता है। कोर्ट ने निर्देश दिया कि इस रिपोर्ट को पूरी तरह से साबित करने के लिए साइंटिफिक एक्सपर्ट्स की गवाही आवश्यक है। यही नहीं, अभियोजन पक्ष को डीएनए रिपोर्ट से संबंधित सभी दस्तावेज बचाव पक्ष को उपलब्ध कराना होगा ताकि वे इसे चुनौती दे सकें और अपने सवाल पूछ सकें।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि इस मामले में जांच प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं रही और अभियोजन पक्ष ने जल्दबाजी में काम किया। इसके कारण दोषी ठहराए गए दोनों आरोपी अब सजायाफ्ता नहीं, बल्कि विचाराधीन कैदी बन गए हैं।

घटना का विवरण
मंदसौर की यह घटना 2018 में सामने आई थी, जब एक 7 वर्षीय बच्ची के साथ दुष्कर्म किया गया था। यह घटना पूरे देश में सनसनी का कारण बनी थी और सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर काफी बहसें हुई थीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मामले की मॉनिटरिंग की थी और फास्ट ट्रैक कोर्ट में ट्रायल चलाने का आदेश दिया था। सिर्फ 55 दिनों में मंदसौर जिला कोर्ट ने दोनों आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई थी, और मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने भी इस सजा को बरकरार रखा था।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने अब इस सजा को निरस्त कर दिया है और मामले को पुनः ट्रायल कोर्ट में भेजने का आदेश दिया है।
डीएनए रिपोर्ट और साक्ष्य का महत्व
मामले में डीएनए रिपोर्ट एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश में यह स्पष्ट किया गया है कि इसे अकेले निर्णायक नहीं माना जा सकता। डीएनए रिपोर्ट को सही साबित करने के लिए जांच करने वाले साइंटिफिक एक्सपर्ट्स को गवाही के लिए कोर्ट में उपस्थित होना होगा। इसके बाद बचाव पक्ष को भी इस रिपोर्ट को चुनौती देने का मौका मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि डीएनए रिपोर्ट का मूल्यांकन करते समय यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सब कुछ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सही है। एक साधारण रिपोर्ट को आधार बनाकर किसी आरोपी को सजा नहीं दी जा सकती, क्योंकि एक्सपर्ट भी इंसान होते हैं और उनसे भी गलतियां हो सकती हैं।

पुलिस की जांच पर सवाल
आरोपियों के वकील अमित दुबे ने इस मामले में पुलिस की जांच पर सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि यह जांच निष्पक्ष और गहन नहीं थी। दरअसल, घटना के समय प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियां चल रही थीं, और शायद इस वजह से पुलिस ने इस मामले में जल्दबाजी दिखाई।
वकील दुबे ने यह भी बताया कि पुलिस की जांच में कई कमजोरियां थीं। उदाहरण स्वरूप, पुलिस के दस्तावेजों में यह कहा गया कि एक आरोपी ने पीड़िता को अगवा किया और दूसरे आरोपी को बुलाया, जबकि इस समय दोनों आरोपियों के बीच कोई संवाद नहीं हुआ था, जैसा कि पुलिस के चालान में दर्ज था।
आगे की प्रक्रिया
अब, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, मामले को फिर से ट्रायल कोर्ट में भेजा जाएगा। ट्रायल कोर्ट में साइंटिफिक एक्सपर्ट्स की गवाही ली जाएगी और उनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर अदालत अपना निर्णय लेगी। इसके बाद, अभियोजन और बचाव पक्ष की पूरी सुनवाई होगी।

पीड़िता के परिवार का दुख
इस वीभत्स घटना ने पीड़िता और उसके परिवार को अपार दर्द और दुख दिया। पीड़िता का लंबा इलाज चला था, जिसमें कई सर्जरी शामिल थीं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने परिवार को आर्थिक सहायता, मकान और रोजगार मुहैया कराया था। हालांकि, सात साल बाद जब पीड़िता के परिवार को यह खबर मिली कि सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा को निरस्त कर दिया है, तो वे फिर से मानसिक रूप से परेशान हो गए।
यह मामला न्याय व्यवस्था, साक्ष्य की ताकत, और जांच प्रक्रिया की निष्पक्षता का गंभीर सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश यह दर्शाता है कि किसी भी मामले में अभियोजन और बचाव पक्ष दोनों को समान रूप से मौका मिलना चाहिए और न्याय की प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी और निष्पक्ष होनी चाहिए। डीएनए रिपोर्ट जैसी महत्वपूर्ण साक्ष्य को भी सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि किसी निर्दोष को दंडित न किया जाए और दोषी को सजा मिले।
आखिरकार, यह मामला न केवल मंदसौर गैंगरेप के आरोपियों के लिए, बल्कि भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण मिसाल बनेगा, जिसमें न्याय का शासन सर्वोपरि है।